मैं अपने बिस्तर पे लेटा हुआ ,
कुछ अनजानी बातों को दिल में समेटा हुआ ,
कहीं खोया सा ,आधी नींद में सोया सा
तभी कमरे में कुछ कदमों की आहट आई
आधी नींद में ही जबां खुली,पूछा कौन हो भाई ??
मिश्रित सा अट्टाहास
प्रतिध्वनित जवाब " रावण " आया
मैं पलटा,देखा सामने, सपकपाया
बलाशयी जीवात्मा देख मेरी गिग्गी बंध गई ,
बची खुची नींद आँखों से उड़ गई !
रा रा रावण ! यहाँ क्यूँ आये हो ?
न्याय ! न्याय माँगने आया हूँ
अपना सम्मान मांगने आया हूँ
मतलब ? कुछ समझा नहीं मैं !!
क्यूँ जलाते हो हर साल मुझे अब भी ??
सवाल का मैं जवाब मांगने आया हूँ
मैंने थोड़ा सा साहस इकट्ठा किया
फिर धीमी आवाज़ में शब्दों को विदा किया
रावण आप भी अजीब बातें करते हैं
मुझ बच्चे से क्यूँ मजाक करते हैं
क्या हर साल जलने का कारण आपको पता नहीं
पुरुषोत्तम राम की अर्धांगिनी आप उठा लायें
क्या रावणी नज़रों में ये एक बड़ी खता नहीं ??
मैं राजा था ,सिर्फ़ लंका का नहीं पूरे ब्रह्मांड का
अध्याय रचा गया था वो मेरी बहन के अपमान का
थप्पड़ था वो त्रिलोकाधिपति के अभिमान पे
मेरी आन ,बान, शान और सम्मान पे
और क्या लगता है तुम्हें
अगर मैं बदले में उनकी इज्ज़त न उठा लाता |
क्या शीशे को भी कभी अपना चेहरा दिखा पाता ||
ये राखी वाले हाथ दुत्कारते मुझको ,
सीने को कभी गर्व से फुला ना कभी पाता ||
अब तुम ये न कहना की नारी की इज्ज़त नहीं की मैंने ।
इतिहास गवाह हैं सीता से कभी जोर जबरदस्ती नहीं की मैंने ।।
बाकि आखिर पुरूष था मैं, ह्रदय बहक गया था सुन्दरता पे
सौन्दर्य के चरमोत्कर्ष से मिल जाने की इच्छा आखिर किसकी नहीं होती !
अगर कोई गुनाह था तो वो 'इच्छा'
जो मेरी कभी पूरी भी न हो पाई ।
अगर कुछ गलत था तो वो 'आँखे '
सौन्दर्य के भीतर पवित्रता न देख पाई ।।
और अगर मैं मान भी लू अपना अपराध
जो मुझे नहीं पता 'क्या' हैं
तो क्या काफी नहीं था दंड में लंका का विनाश
क्यों मुझे हर साल यूँ जलाया जाता हैं
सिर्फ इसलिए की मैंने एक अपमान के बदले
शत्रु की इज्ज़त अपने घर को उठा ली ।
या इसलिए कि मेरे अभिमान ने
मेरी प्रजा की जिंदगियां जला दी ।।
अगर प्रजा की जिंदगियां जलाने पे
मेरे पुतले हजारों साल जलने हैं ।
तो दिल्ली में बैठे वे सफेदपोश
तो भरी सभा जिंदा जलने थे ।।
पर मेरी किस्मत देखो,वो ही
मुझे जलाने आते हैं
क्या मुझे जला के
उनके पापों के घड़े खाली हो जाते हैं ?
और अगर है अपराध नारी के अपमान का
तो गिनों जिन्दा खुले फिरते बलात्कारियों को
खड़े खड़े यूँ पोथे के पोथे भर जाने थे ।
उन्हें क्यूँ जला नहीं पाते तुम लोग , नपुंसक हो ??
जो मरे हुए के पुतले को बार बार जलाते हो ??
और जिन्दा अपराधी से डर के दुबक जाते हो ??
राम दुनिया में अब रहें नहीं या
मेरे बाद शास्त्रों की बातें बदल गयी ।
पुरस्कार पापों पे मिलने लगा या
नारी सम्मान की परिभाषा बदल गयी ।।
रावण अंकल ,
करोड़ों की आबादी में सारे नपुंसक , ये तो सही नहीं ।
शायद आजकल बची औरतें " सीता " ही नहीं रही ।।
ऐसा कहके मैंने रावन के काव्यपाठ में सुर मिलाया
एक खींच के सिर पे प्रहार हुआ ,
.
.
ना ना शायद यहाँ लोग नपुंसक ही सही ।
क्या ?
क्या बडबडा रहा हैं ?
सब दिन सोता रहता हैं ,
ये टाइम हैं क्या सोने का
चल उठ जल्दी ,
अभी थोड़ी देर में दशहरा देखने चलेंगे ।
पता हैं आज मुख्यमंत्रीजी दहन करेंगे।।
कहते कहते पापा पास के कमरे को चल दिए ।
और हम सिर सहलाते मुंह धोने निकल लिए ।।
।। मनसा ।।

3 comments:
बहुत बढ़िया रचना....
हलके फुल्के अंदाज़ में बहुत भारी बात कह गयी.....
अनु
good one....
कहते है की काबिलयत में वो ताकत होती है की न तारीफ करने वाले भी तारीफ करे बिना नहीं रह पाते
और आपकी लेखनी में वो ताकत है की जो भी आपकी इन रचनाओ को पड़ेगा वो बिना तारीफ करे नहीं रह सकता है