" अल्फ़ाज़ - ज़ो पिरोये मनसा ने "

ज़र्रों में रह गुज़र के चमक छोड़ जाऊँगा ,
आवाज़ अपनी मैं दूर तलक छोड़ जाऊँगा |
खामोशियों की नींद गंवारा नहीं मुझे ,
शीशा हूँ टूट भी गया तो खनक छोड़ जाऊँगा||

हुस्न तेरा ए सनम :)



नैनों में बसे उसके चाकू , छुरी , खंजर सारे ,
देख ले बस एक नज़र , तो कत्ल-ए-आम कर जाएँ |

लबों से महज़ छू ही ले वो एक बारगी भी प्याला ,
तो सच्ची , सादा पानी  भी ज़ालिम शराब बन जाएँ ||

अधरों पे चंचल मुस्कान और वो तराशा हुआ साँचा ,
ख़ुद ही समझ जाओगे , परवाना क्यूँ शमा में जल जाएँ |

वो रेशम सी जुल्फें , कुछ अपने में उलझी हुई ,
उलझे उलझे से ख़ुद हम , बस अरमान मचल जाएँ ||

"हुस्न ख़ुद इससे हैं ",तारीफ में और क्या लिखते "मनसा"
ये  तो वो महक हैं , फिज़ाएँ ख़ुद जिससे महकती चली जाएँ ||



10 comments:

ye waqt julfon me bhatkane ka nahi......:)

sunder abhivyakti.

 

बहुत ख़ूबसूरत...

 

बहुत ख़ूबसूरत और बोलती हुई चित्र बनाया है आपने! सुन्दर भाव और अभिव्यक्ति के साथ लाजवाब रचना लिखा है आपने जो प्रशंग्सनीय है! बधाई !

 

मनीष जी,..काबिले तारीफ़ गजल सुंदर पोस्ट पसंद आई बधाई...
मेरे नए पोस्ट में स्वागत है.....

 

बढ़िया शेर ! अच्छी गज़ल ! शुभकामनाएँ ।

 

बहुत खुबसूरत शेर दाद को मुहताज नहीं

 

बहुत खूबसूरत ग़ज़ल..........आपने फेसबुक का कमेन्ट ऑप्शन यहाँ कैसे लगाया ?

 

हौसला अफजाई के लिए आप सभी का शुक्रिया :)

इमरान ज़ी : here it is https://developers.facebook.com/docs/reference/plugins/comments/

 

बेहद सुन्दर शब्द

 

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