" अल्फ़ाज़ - ज़ो पिरोये मनसा ने "

ज़र्रों में रह गुज़र के चमक छोड़ जाऊँगा ,
आवाज़ अपनी मैं दूर तलक छोड़ जाऊँगा |
खामोशियों की नींद गंवारा नहीं मुझे ,
शीशा हूँ टूट भी गया तो खनक छोड़ जाऊँगा||

'मोहब्बत' पेशा नहीं होता


  वो बेवफा आज फिर लौट आई हैं मुझमें ही सिमट जाने को |
  अरे कोई उस नादाँ को समझाए ,'मोहब्बत' पेशा नहीं होता ||



11 comments:

सुभानाल्लाह............क्या खूब कहा है.............शानदार|

 

वाह!!!वाह!!! क्या कहने, बेहद उम्दा

 

बहुत ही बढ़िया प्रस्तुति ||

 

बहुत खूब |
मेरे ब्लॉग में भी आयें-

**मेरी कविता**

 

aaiye--

charchamanch.blogspot.com

 

बहुत सुन्दर...