" अल्फ़ाज़ - ज़ो पिरोये मनसा ने "

ज़र्रों में रह गुज़र के चमक छोड़ जाऊँगा ,
आवाज़ अपनी मैं दूर तलक छोड़ जाऊँगा |
खामोशियों की नींद गंवारा नहीं मुझे ,
शीशा हूँ टूट भी गया तो खनक छोड़ जाऊँगा||

...दिल में कसक आज़ भी हैं ||




                            तेरे आलिंगन में धडकनों को मिली थी जन्नत ,
                                                               मेरी साँसो में उसकी सिसक आज भी हैं |
                            अलविदा कहते जो छूए थे तूने लब मेरे ,
                                                         मेरे होंठो पे तेरे होंठो की खिसक आज़ भी हैं ||
                            ख़्वाहिश तो थी लिखने की पूरी किताब तेरे हुस्न के जलवों पे ,
                            पर तेरी बेवफ़ाई ने मेरी कलम को उठने न दिया , 
                                                                     दिल में इसकी कसक आज़ भी हैं ||

|| मनसा ||


जरा इन्हें भी देख लीजिये  >>

8 comments:

कुछ अलग लगते हैं |

प्रस्तुति कलेजे से निकल कर बिखरी है |

किसी की दी हुई चोट, बड़ी अखरी है |

बहुत कुछ मिला है रकीब से --

शब्दों की अभिव्यक्ति खूब निखरी है ||

 

कोई भी सलीका नहीं होता है प्यार का
बस प्यार ही है एक सलीका प्यार का ||

 

सुन्दर भावपूर्ण प्रस्तुति..

 

अति सुन्दर.......
दिल के घाव भर जाते हैं पर निशाँ नहीं मिटते ..

 

सुन्दर भाव और अभिव्यक्ति के साथ ज़बरदस्त रचना! हर एक पंक्तियाँ लाजवाब लगा! बधाई!

 

... बेहद प्रभावशाली अभिव्यक्ति है ।
http://sanjaybhaskar.blogspot.com